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रूस-यूक्रेन युद्ध एक सप्ताह से ज्यादा समय से जारी है. इस बीच यूक्रेन में फंसे भारतीय छात्रों को सुरक्षित निकालने में नजदीकी यूरोपीय देश पोलैंड मदद के लिए सामने आया है. अपने स्टूडेंट्स को लेकर चिंतित भारत ने इसके लिए पौंलेंड (Poland) का शुक्रिया अदा किया है. अपने स्टूडेंट्स को निकालने के लिए लगातार प्रयास कर रहे हमारे देश ने इस संबंध में रूस समेत कई देशों से बात की है. रोमानिया, हंगरी और पोलैंड के रास्ते कई भारतीय छात्र युद्धग्रस्त यूक्रेन से स्वदेश वापसी कर रहे हैं. कई दिनों से ऑपरेशन गंगा की मुहिम को लेकर केंद्रीय नागरिक उड्डयन राज्य मंत्री वीके सिंह पोलैंड में सक्रिय हैं.
भारत में पोलैंड के राजदूत एडम बुराकोवस्की और पोलैंड में भारत की राजदूत नगमा मोहम्मद मल्लिक से लगातार संपर्क में हैं. यूक्रेन के वॉर जोन से निकल रहे भारतीय छात्रों को पोलैंड में जरूरी मदद पहुंचाई जा रही है. इस बीच सोशल मीडिया पर द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पोलीश नागरिकों को भारत से मिली मदद की चर्चा भी सामने आने लगी. दूसरे विश्व युद्ध के दौरान भारत ने पोलैंड से आए उन अनाथ बच्चों को मदद की थी, जिन्हें किसी भी देश ने रखने से मना कर दिया था. आइए जानते हैं कि उस वक्त क्या हालात थे और भारत ने कैसे पोलैंड की हरसंभव मदद की थी.
भारतीय जनमानस में विश्व कल्याण की भावना
दरअसल, विश्व कल्याण की भावना भारतीय जनमानस में परंपरा से रची-बसी हुई है. पश्चिमी देश पोलैंड ने इसका ऐसा एहसास किया अपने चौराहे, पार्क, स्कूल को भारत के उस महाराजा का नाम दे दिया. तत्कालीन जामनगर रियासत के महाराजा दिग्विजय सिंहजी जडेजा ने पोलैंड की नई पीढ़ी को उस वक्त अपनाया जब वो जर्मनी और रूस के हमले में बेसहारा हो गई थी. पोलैंड रूस के हमले का शिकार हुआ था. युद्ध में अनाथ हुए पोलैंड के करीब एक हजार बच्चों को महाराजा दिग्विजय सिंह ने पनाह और पिता का प्यार दिया. पोलैंड सरकार ने महाराजा दिग्विजय सिंह को मरणोपरांत अपना सर्वोच्च नागरिक सम्मान कमांडर्स क्रॉस ऑफ दि ऑर्डर ऑफ मेरिट से नवाजा था.
जर्मनी और रूस के हमले से पस्त था पोलैंड
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान साल 1939 में जर्मनी ने पोलैंड पर हमला बोल दिया. जर्मन तानाशाह हिटलर और सोवियत रूस के तानाशाह स्टालिन के बीच गठजोड़ हुआ. यूके की ओर से पौलेंड को एक संप्रभु देश घोषित कर दिया था. इसको लेकर जर्मन अटैक के 16 दिन बाद सोवियत सेना ने भी पोलैंड पर धावा बोल दिया. दोनों देशों का पोलैंड पर कब्जा होने तक भीषण तबाही मची. हजारों सैनिक मारे गए और भारी संख्या में बच्चे अनाथ हो गए. अनाथ बच्चे कैंपों में बेहद अमानवीय हालात में जीने को मजबूर हो गए. दो साल बाद 1941 में रूस ने इन कैंपों को भी खाली करने का फरमान जारी कर दिया.
दुनिया के कई देशों ने नहीं दी थी बच्चों को पनाह
पौलेंड के कई अनाथ बच्चे टर्की जैसे देशों की तरफ बढ़ रहे थे. उस वक्त कुछ देशों ने बच्चों को रखने से मना कर दिया था. माना जाता है कि उस वक्त उन देशों ने बच्चों को रखने से इसलिए मना किया था, क्योंकि उन्हें लग रहा था कि अगर पौंलेंड के लोगों को वो रखते हैं तो रूस उन पर भी हमला कर सकता है. इसके बाद ब्रिटेन की वॉर कैबिनेट की मीटिंग हुई. कैंपों में रहने वाले अनाथ पोलिश बच्चों के लिए विकल्पों पर विचार किया गया.
ब्रिटिश सेना से बहस कर महाराजा ने अपनाए बच्चे
ब्रिटिश वॉर कैबिनेट की मीटिंग में नवानगर ( आज के गुजरात का जामनगर ) के राजा दिग्विजिय सिंहजी जडेजा भी शामिल थे. उन दिनों भारत पर अंग्रेजों की हुकूमत थी और जामनगर ब्रिटिश रिसायत थी. महाराजा दिग्विजय सिंह ने कैबिनेट के सामने प्रस्ताव रखा कि अनाथ पोलिश बच्चों की देखरेख के लिए उन्हें नवानगर लाना चाहते हैं. इसके लिए महाराजा को बिट्रिश सेना से काफी बहस करनी पड़ी थी. आखिरकार उनके प्रस्ताव को कैबिनेट की मंजूरी मिल गई. ब्रिटिश सरकार, बॉम्बे पोलिश कॉन्स्युलेट, रेड क्रॉस और रूस के अधीन पोलिश फौज के संयुक्त प्रयास से बच्चों को भारत भेजा गया.
ईरान के रास्ते भारत लाए गए पोलिश बच्चे
साल 1942 में 170 अनाथ बच्चों का पहला समूह जामनगर पहुंचा. उस वक्त बच्चे ईरान के रास्ते भारत लाए गए थे. इसके बाद अलग-अलग समूहों में करीब 1000 अनाथ पोलिश बच्चे भारत आए. महाराजा दिग्विजिय सिंहजी ने जामनगर से 25 किलोमीटर दूर बालाचाड़ी गांव में उन्हें शरण दी. महाराजा ने बच्चों से कहा कि अब वे उन सबके पिता हैं. बालाचाड़ी में हर बच्चे को कमरों में अलग-अलग बिस्तर, खाने-पीने, कपड़े और स्वास्थ्य सुविधाओं के साथ खेलने तक की सुविधा सुनिश्चित की. पोलैंड ने भी बच्चों के लिए एक फुटबॉल कोच भेजा था.
दोबारा बालाचाड़ी आकर भावुक हुइ पोलिश टीम
महाराजा ने बालाचाड़ी में लाइब्रेरी बनवाकर उनमें पोलिश भाषा की किताबें रखवाई गईं. पोलिश त्याहोर भी धूमधाम से मनाए जाते रहे. सभी खर्च महाराजा ने उठाया. उन्होंने पोलैंड सरकार से इसके लिए कभी कोई रकम नहीं ली. साल 1945 में विश्वयुद्ध खत्म होने पर पोलैंड को सोवियत यूनियन में मिला लिया गया. अगले वर्ष पोलैंड की सरकार ने भारत से बच्चों की वापसी को लेकर महाराजा दिग्विजिय सिंह से बात की. महाराजा ने पोलिश सरकार को अमानत की तरह संभालकर रखे गए सारे बच्चे सौंप दिए.
साल 2013 में पोलैंड से नौ बुजुर्गों का एक समूह गुजरात में जामनगर के बालाचाड़ी आया. अपनी याद में बने स्तंभ को उस समूह ने देखा. उन सभी ने बालाचाड़ी में बिताए अपने बचपन के पांच साल को भावुक होकर याद किया. जिस लाइब्रेरी में कभी वो पढ़ा करते थे, वो आज सैनिक स्कूल में तब्दील हो गया है.
महाराजा के लिए पोलैंड ने जताई कृतज्ञता
43 साल बाद 1989 में पोलैंड सोवियत संघ से अलग हो गया. स्वतंत्र पोलैंड की सरकार ने राजधानी वॉरसॉ के एक चौक का नाम दिग्विजय सिंह के नाम पर रख दिया. साल 2012 में वॉरसॉ के एक पार्क का नाम भी उनकी याद में रखा गया. अगले साल 2013 में वॉरसॉ में फिर एक चौराहे का नाम ‘गुड महाराजा स्क्वॉयर’ दिया गया. इतना ही नहीं, महाराजा दिग्विजय सिंहजी जडेजा को राजधानी के लोकप्रिय बेडनारस्का हाई स्कूल के मानद संरक्षक का दर्जा दिया गया. पोलैंड ने महाराजा को अपने सर्वोच्च नागरिक सम्मान कमांडर्स क्रॉस ऑफ दि ऑर्डर ऑफ मेरिट भी
क्रिकेट से भी है महाराजा का खास रिश्ता
महाराजा महाराजा दिग्विजय सिंहजी जडेजा का निधन साल 1966 में हुआ था. भारत में होने वाली क्रिकेट की रणजी ट्रॉफी महाराजा दिग्विजय सिंहजी जडेजा के पिता महाराजा रणजीत सिंहजी जडेजा के नाम पर ही खेली जाती है. रणजीत सिंहजी प्रफेशनल क्रिकेटर हुआ करते थे. उनके नाम पर अंग्रेजों ने 1934 में रणजी ट्रॉफी क्रिकेट टूर्नामेंट शुरू किया था. यह भारत का सबसे बड़ा घरेलू क्रिकेट टूर्नामेंट है.