पानी तक पीने का नहीं था अधिकार, आज ही के दिन पानी पीने का हक दिलवाने के लिए किया था क्रांति

Share this

NV News:-  प्राकृत ने भले ही सबको बराबर का अधिकार दिया है किसी के साथ कोई भेद-भाव नहीं किया। लेकिन हमारे समाज के तथाकथित हिंदुत्व के झंडाबरदारों ने प्रकृति द्वारा दिए गए उपहारों को धर्म और जाति के आधार पर बाँट दिया। आप सोंचो कितना दुखदाई वह वक्त था जब समाज द्वारा शोषित किये गया वर्ग (अनुसूचित जाति एवं जनजाति ) के लोगो को मर्जी से स्वच्छ जल तक नसीब नहीं होता था।

कहते हैं इन जातिवादियों के बस में होता तो सूर्य की मिलने वाली रोशनी पर प्रतिबंध लगा देते। क्यूंकि तालाब, कुँए, नल एवं सार्वजानिक स्थानों पर तो अनुसूचित जाति के लोगो को जाने का भी प्रतिबन्ध लगा दिया था। जिस तालाब का पानी जानवर पी सकते थे लेकिन अनुसूचित जाति के लोगो नहीं ।

कुछ ऐसी जातिवादी व्यवस्था के खिलाफ बाबा साहब ने 20 मार्च 1927 को महाड़ सत्‍याग्रह की शुरूआत किया। अंग्रेजी शासनकाल के दौरान 1924 में महाराष्ट्र के समाज सुधारक श्री एस. के. बोले ने बम्बई विधानमंडल में एक विधेयक पारित करवाया जिसमें सरकार द्वारा संचालित संस्थाएं-अदालत, विद्यालय, चिकित्सालय, पनघट, तालाब आदि सार्वजनिक स्थानों पर अछूतों को प्रवेश व उनका उपयोग करने का आदेश दिया गया, लेकिन सवर्ण हिन्दुओं ने नगरपालिका के आदेश भी मानने से इनकार कर दिया।

कोलाबा जिले के महाड में स्थित चवदार तालाब में ईसाई, मुसलमान, पारसी, पशु, कूते सभी तालाब के पानी का उपयोग करते थे लेकिन अछूतो को यहाँ पानी छूने की भी इजाजत नहीं थी। तब बाबा साहब के नेतृत्व में ढाई हजार अछूतों ने तालाब से पानी पीकर आंदोलन की क्रांतिकारी शुरुआत की।

उस समय अछूतपन के श्राप से पीड़ित समाज को अपनी बदहाली से उबारने के लिए बाबा साहेब ने इस पानी को छूकर दलितों को पानी का पीने का अधिकार दिलाया। उन्होंने जो तीन सूत्र दिए थे वे उल्लेखनीय हैं उन्होंने पहला सूत्र दिया था-

गंदे व्यवसाय या पेशे को छोड़कर बाहर आना।
मरे हुए जानवरों का मांस खाना छोड़ना।
अछूत होने की अपनी स्वयं की हीनभावना से बाहर निकलना और खुद को सम्मान देना।
एक क्रम में रखकर देखें तो ये क्रांतिकारी सूत्र बहुत गहरी समाज मनोवैज्ञानिक तकनीकें हैं। इन सूत्रों का सौंदर्य और क्षमता निरपवाद हैं और जिन भी समुदायों या व्यक्तियों ने इसपर अमल किया है, इतिहास में उनकी उन्नति हुई है।

यह दासता और गुलामी को तोङने की शुरुआत थी, लेकिन बौखलाए हिन्दूओं ने भीङ पर लाठियों से हमला कर दिया। बहुत से लोग घायल हुए। डाँ साहब ने अछूतों को संयम व शान्ति रखने की सलाह दी और कहा हमें प्रतिघात नहीं करना है। जन समुदाय ने अपने नेता की बात मान ली। उधर सवर्णो ने अछूतों के छूने से अपवित्र हुए चवदार तालाब का शुद्धिकरण करने के लिए गोबर व गौमूत्र तालाब में डलवाया।

इसके बाद 20 दिसम्बर 1927 को बाबा साहब के नेतृत्त्व में ही मनुस्मृति को जलाकर ब्राह्मणवादी व्यवस्था और सत्ता को चुनौती दी। डॉ. आंबेडकर ने इस घटना की फ्रांस की राज्य क्रांति से तुलना करते हुए यहा था कि यह घटना दलित क्रांति के इतिहास में वही स्थान रखती हैं जो फ्रांस और यूरोप में जन-मुक्ति के इतिहास में बास्तीय के पतन का था।

सीधी कार्रवाई की अगली कड़ी में बाबा साहब के नेतृत्व में ही 5000 अछूतों के साथ 2 मार्च 1930 को (इसी दिन गांधी ने अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ सविनय अवज्ञा आंदोलन आरंभ किया था) नासिक के कालाराम मन्दिर में प्रवेश की घटना आती है। यहां भी महार की तरह आंबेडकर सहित सैंकड़ों दलितों के सिर फूटे, लेकिन एक साल तक सभी के लिए मंदिर के कपाट बंद कर दिए। ‘

इस तरह डाँ अम्बेडकर ने बम्बई हाईकोर्ट में लगभग दस वर्ष तक ये लङाई लङी और अंत में 17 दिसम्बर 1936 को अछूतों को चवदार तालाब में पानी पीने का अधिकार मिला। यह अस्पृश्य समाज के लिए ऐतिहासिक जीत थी।

Share this