Chhattisgarh high court की सख्त टिप्पणी: हिरासत में मौत लोकतंत्र पर गहरा आघात, चार पुलिसकर्मियों की सजा घटाकर 10 साल का कठोर कारावास

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NV News Bilaspur: जुलाई 2025। छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने पुलिस हिरासत में हुई एक मौत के मामले में ऐतिहासिक और मानवीय अधिकारों की रक्षा के लिए बेहद सख्त और संवेदनशील टिप्पणी करते हुए लोकतांत्रिक व्यवस्था को झकझोर देने वाला फैसला सुनाया है। वर्ष 2016 में जांजगीर-चांपा जिले के मुलमुला थाना क्षेत्र के अंतर्गत नरियरा गांव के युवक सतीश नोरगे की हिरासत में हुई मौत के मामले में हाई कोर्ट ने दोषी पाए गए चार पुलिसकर्मियों की उम्रकैद की सजा को घटाकर 10 वर्ष के कठोर कारावास में परिवर्तित कर दिया है।

इस मामले में सुनवाई करते हुए छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति संजय के. अग्रवाल और न्यायमूर्ति दीपक कुमार तिवारी की खंडपीठ ने बेहद महत्वपूर्ण टिप्पणी की, जिसमें कहा गया कि –
“हिरासत में मौत न सिर्फ कानून का उल्लंघन है, बल्कि यह लोकतंत्र और मानवाधिकारों पर गहरा आघात है। जब रक्षक ही भक्षक बन जाएं, तो यह व्यवस्था के लिए सबसे बड़ा खतरा बन जाता है।”

Death of an innocent

घटना 7 सितंबर 2016 की है, जब नरियरा गांव निवासी सतीश नोरगे को शराब के नशे में हंगामा करने के आरोप में पुलिस ने हिरासत में लिया था। उसे मुलमुला थाने में बंद किया गया, जहां उसकी संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई। बाद में आई पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मृतक के शरीर पर 26 अलग-अलग चोटों के निशान पाए गए, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि उसके साथ हिरासत के दौरान गंभीर मारपीट की गई थी।

यह मामला सामने आते ही पूरे इलाके में आक्रोश फैल गया था। गांव के लोगों और परिजनों ने इस मौत को हिरासत में की गई बर्बरता का परिणाम बताते हुए न्याय की मांग की। सामाजिक संगठनों और मानवाधिकार संस्थाओं ने भी इस मामले में कड़ी प्रतिक्रिया दी थी।

violation of law, mass crime

घटना के बाद जांच की गई, जिसमें थाना प्रभारी जितेंद्र सिंह राजपूत, आरक्षक सुनील ध्रुव, दिलहरण मिरी और सैनिक राजेश कुमार को दोषी पाया गया। चारों के खिलाफ IPC की धारा 302 (हत्या) और 34 (सामूहिक अपराध) के तहत मामला दर्ज कर 2019 में एट्रोसिटी स्पेशल कोर्ट, चांपा ने सभी को उम्रकैद की सजा सुनाई थी।

सजा के खिलाफ सभी चारों दोषियों ने हाई कोर्ट में अपील की थी, जिस पर अब निर्णय आया है।

हाई कोर्ट का फैसला: पूर्व नियोजित हत्या नहीं, लेकिन गैर-इरादतन हत्या सिद्ध

छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट की डबल बेंच ने इस मामले की गहराई से सुनवाई करते हुए कहा कि अभियोजन पक्ष यह सिद्ध नहीं कर पाया कि पुलिसकर्मियों ने हत्या की पूर्व योजना बनाई थी या जानबूझकर उसकी हत्या की गई।

हालांकि, अदालत ने यह भी कहा कि –
“पुलिसकर्मियों को यह ध्यान होना चाहिए था कि हिरासत में की गई मारपीट के गंभीर परिणाम हो सकते हैं।”
इस आधार पर कोर्ट ने इसे गैर इरादतन हत्या (IPC धारा 304 भाग-1) मानते हुए सभी दोषियों की उम्रकैद की सजा को 10 साल के कठोर कारावास में बदल दिया

“जब रक्षक ही भक्षक बन जाएं, तो यह लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा बन जाता है। हिरासत में मौत मानवाधिकारों की सीधी अवहेलना है।”

यह टिप्पणी पूरे मामले को केवल एक कानूनी विषय तक सीमित नहीं रखती, बल्कि यह पुलिस व्यवस्था और लोकतांत्रिक ढांचे पर एक गंभीर सवाल खड़ा करती है।

SC-ST एक्ट के तहत आरोप से बरी

एक और अहम पहलू यह रहा कि मृतक सतीश नोरगे की जातीय पहचान को लेकर न्यायालय में चर्चा हुई। अभियोजन पक्ष यह साबित नहीं कर पाया कि सतीश अनुसूचित जाति से संबंधित था और दोषियों को उसकी जाति की जानकारी थी। इसी आधार पर अदालत ने आरोपी थाना प्रभारी जितेंद्र सिंह राजपूत को SC-ST एक्ट के तहत दर्ज धाराओं से बरी कर दिया।

मानवाधिकार और पुलिस सुधार की आवश्यकता पर बल

यह मामला एक बार फिर यह साबित करता है कि पुलिस हिरासत में हो रही ज्यादतियों पर रोक लगाने के लिए संस्थागत सुधारों की सख्त आवश्यकता है। भारत में हिरासत में मौत के आंकड़े लगातार चिंता का विषय बनते जा रहे हैं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) के अनुसार, भारत में हर साल सैकड़ों मौतें पुलिस हिरासत में होती हैं, जिनमें से कई मामलों में न्याय नहीं मिल पाता।

सवालों के घेरे में पुलिस की भूमिका

हालांकि इस मामले में आरोपियों को सजा मिली है, लेकिन यह एक व्यापक समस्या का संकेत है। जब तक पुलिस कर्मियों को मानवाधिकार, संवैधानिक जिम्मेदारी और लोकतांत्रिक मूल्यों की गहरी समझ नहीं होगी, तब तक ऐसे मामले रुकने वाले नहीं हैं।

Protector of Democracy

इस मामले से जुड़े वकीलों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने इस फैसले का स्वागत करते हुए कहा कि—
“हाई कोर्ट का यह फैसला एक मजबूत संकेत है कि राज्य की जिम्मेदार संस्थाएं, अगर सजग हों, तो पीड़ित को न्याय मिल सकता है।”

पुलिस सुधार, मानवाधिकार संरक्षण

यह फैसला आने वाले समय में पुलिस सुधार, मानवाधिकार संरक्षण, और न्यायिक पारदर्शिता की दिशा में एक मिसाल के रूप में देखा जाएगा। साथ ही, यह संदेश भी देता है कि लोकतंत्र में किसी भी सत्ताधारी संस्था को ‘अपराधी’ बनने का अधिकार नहीं है।

 

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